आचार्य शुक्ल की काव्य मान्यताओं का निर्माण वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति और विशेषतः तुलसी के रामचरित मानस के आधार पर हुआ। वे रसवादी नीतिवादी और लोकमंगलवादी अडिग आस्थाओं के आलोचक हैं।
इसलिए प्रवन्ध लिखने वाले जायसो और तुलसी के काव्य का उन्होंने सम्यक् उद्घाटन किया। किन्तु सूरदास तथा रीतिकालीन और आधुनिक युग के कवियों के साथ पूरा न्याय उन्होंने नहीं किया। सूरदास लोकपक्ष की दृष्टि से तुलसीदास की बराबरी न कर सके।
छायावादी कवियों की उन्होंने अपनी लोकवादी दृष्टि के कारण बराबर उपेक्षा की। छायावादी कवियों द्वारा सहज सामान्य विषयों को कविता का विषय बनाना शुक्ल जी की प्रशंसा का पात्र भी बना।
पन्त को प्रकृति सम्बन्धी और निराला की सामाजिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को कविताओं की शुक्ल जी ने प्राचीन और मध्यकालीन कवियों पर खूब लिखा किन्तु समसामयिक छायावादी काव्य उनकी दृष्टि से उपेक्षित हो रहा। पूर्वाग्रहों के बावजूद आचार्य शुक्ल उच्चकोटि के समालोचक के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
शुक्लजी की आलोचना पद्धति को आगे बढ़ाने वालों में कृष्ण शंकर शुक्ल विश्वनाथ प्रसाद नित्र, रामकृष्ण शिलीमुख, ब्रजरतनदास, डॉ. रामकुमार वर्मा, जनार्दन मिश्र, भुवनेश्वर नाथ सिंह, गिरिजादत्त गिरीश, रामनाथ सुमन आदि प्रसिद्ध हैं।
0 टिप्पणियाँ